माँ लक्ष्मी की जनम कथा-Maa Laxmi ki Janam Katha
माँ लक्ष्मी की जनम कथा -Maa Laxmi ki Janam Katha
मैं आप सभी का लक्ष्मीपुत्र पर सहृदय हार्दिक स्वागत करता हूँ| जैसा की आप सभी जानते है और ये सर्वविदित है कि जब से युगों की शुरुआत हुई है तब से लेकर अबतक के समय से जीवनयापन के लिए हमारे जीवन में धन की विशेष महत्वता रही है और जबतक यह संसार में जीवन व्याप्त रहेगा तबतक धन की विशेष महत्वता रहेगी क्यों की बगैर धन के इस संसार में जीवनयापन कर पाना एक कल्पना मात्र है और इस संसार में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति चाहे वो पुरुष हो या महिला सभी के जीवन में धन का विशेष महत्व और स्थान है क्यों की धन के बगैर किसी प्रकार की कोई सी भी वस्तु का क्रय विक्रय नहीं किया जा सकता, धन के बगैर किसी भी उस वस्तु को उपभोग में लाने की कल्पना भी नहीं कर नहीं कर सकते हैं क्यों कि हमें जो भी वस्तु जो धन के माध्यम से चाहिए वो तभी प्राप्त हो सकती है जब हमारे पास उतना धन हो क्यों की धन से ही आप अपने जीवन में उपभोग में आने वाली समस्त वस्तु को प्राप्त कर सकते हैं इसलिए हमारे जीवन में धन का इतना ज़्यादा महत्व है और जैसा कि सभी जानते है की धन की अधिष्ठात्री देवी माँ लक्ष्मी हैं और ये माँ लक्ष्मी की जनम कथा है क्यों की सभी के मन में ये इक्छा अवश्य की उठी होगी के जिस धन की देवी की हम पूजा करते हैं उनका इस संसार में जन्म कैसे हुआ और धन का प्रचलन कब से चली आ रही है क्या धन के साथ ही इस पृथ्वीलोक की शुरुआत हुई थी या धन का प्रचलन पृथ्वीलोक के निर्माण के पूर्व से ही चला आ रहा है और अगर धन का प्रचलन पृथ्वीलोक के निर्माण के पूर्व से था तो उस युग में क्या हुआ करता था कैसे इस अनंत ब्रम्हांड की उत्पत्ति हुई है और धन की देवी माँ महालक्ष्मी का जन्म कैसे हुआ| मैं आज आपके समक्ष माँ लक्ष्मी की जनम कथा कथा प्रस्तुत कर रहा हूँ, यह एक कोशिश मात्र है आशा करता हूँ की ये माँ लक्ष्मी की जनम कथा आपको पसंद आएगी। हिन्दू धर्म में पौराणिक मान्यता के अनुसार जब आदिकाल (आदिकाल का अर्थ होता है जिसके आगे और पीछे कुछ न हो) इस ब्रम्हांड का निर्माण नहीं हुआ था उस समय भगवन ईश्वर केवल एक दिव्य प्रकाश के रूप में व्याप्त थे और उस आदिकाल में सभी जगहों पर ब्रम्हांड की सर्वव्याप्त ध्वनि विद्यमान थी जिसे हम ॐ या ओमकार कहते हैं और इसी दिव्य प्रकाश से आदिदेव श्री आदिनारायण प्रकट हुए, उनके प्रकट होने के पश्च्यात आदिदेव के मन में इस सृष्टि के निर्माण की अभिलाषा हुई तब आदिदेव ने अपने वाम हस्त (बायां हाथ) से देवी आदिशक्ति को प्रकट किया (जिन्हे हम जगतजननी माँ महामाया कहते हैं) वही आदिशक्ति भगवती माहालक्ष्मी माँ हैं और भगवान आदिदेव के मन में माँ आदिशक्ति का स्थान इतना सर्वोपरि है की जब भगवान आदिदेव ने माँ आदिशक्ति को प्रकट किया तब स्वयं भगवान आदिदेव ने माँ आदिशक्ति को प्रणाम किया| मान्यता है की आदिदेव किसी भी कार्य को करने के लिए केवल संकल्प मात्र करते हैं और उस संकल्प को साक्षात् स्वरुप देवी आदिशक्ति करती हैं, तब भगवान आदिदेव ने माँ आदिशक्ति से कहा की वो इस सृष्टि की रचना और संचालन का कार्य माँ आदिशक्ति को करना है, भगवान आदिदेव ने माँ आदिशक्ति से कहा की वो अपने अंदर की शक्तियों को प्रकट करे और इस सृष्टि की रचना, पालन और संहार का कार्य सम्हालने के लिए कहा जिस पर देवी माँ आदिशक्ति ने भगवान आदिदेव से प्रार्थना करती है की भगवान आदिदेव अपने महाअनंत अस्तित्व के अंश से तीन दिव्य विभूतियाँ प्रकट करे|
जो की सर्वप्रथम अंश ब्रम्हा जी के रूप में द्वितीय अंश श्री हरी विष्णु के रूप में और त्रितिय अंश भोलेनाथ शिवशम्भू के रूप में तब भगवान आदिदेव ने माँ आदिशक्ति की प्रार्थना स्वीकार कर अपने अनंत अस्तित्व से भगवान ब्रम्हा जी श्री हरी विष्णु जी और महादेव शिव को प्रकट किया और ब्रम्हदेव ने दोनों को प्रणाम किया और पूछा की उनकी उत्पत्ति की लिए की गयी है और उनका कार्य क्या है फिर माँ आदिशक्ति ने एक एक कर के तीनो भगवानों के कार्यों की व्याख्या की, माँ आदिशक्ति ने बताया की प्रथम अंश ब्रम्हदेव का कार्य इस सृष्टि की रचना करना है और इस कार्य में माँ आदिशक्ति स्वरुप माँ सरस्वती ब्रह्मदेव की सहायता करेंगी और दोनों का निवास स्थान ब्रम्हलोक होगा, इसी प्रकार आदिदेव के द्वितीय अंश भगवान श्री हरी विष्णु ने दोनों के प्रणाम करते हुए पूछा की उनकी उत्पत्ति किस कार्य के लिए की गयी है तब माँ आदिशक्ति ने भगवान श्री हरी विष्णु जी को बताया की उनका कार्य इस सृष्टि का संरक्षण और पालन के लिए की गयी है और श्री हरी विष्णु का निवास क्षीर सागर में शेषनाग की शय्या पर होगा और जब जब इस सृष्टि में धर्म का हास और अधर्म का साम्राज्य होगा तब तब श्री हरी विष्णु को भीषण अवतार धारण कर के अधर्मोयों का विनाश कर धर्म का संरक्षण करना होगा, इसी प्रकार आदिदेव के त्रितीय अंश महादेव शिवशंभू भोलेनाथ ने दोनों के प्रणाम कर पूछा की उनकी उत्पत्ति किस कार्य के लिए की गयी है तब माँ आदिशक्ति ने भगवान भोलेनाथ को अवगत कराया की जब ब्रम्हदेव इस नश्वर सृष्टि का निर्माण करेंगे और जब इस सृष्टि की उत्पत्ति होगी तो उसी प्रकार इस सृष्टि का विनाश भी आवश्यक होगा और भगवान भोलेनाथ का कार्य संहार करना होगा और इस कार्य में माँ आदिशक्ति स्वरुप माँ पार्वती भगवान शिव का सहयोग करेंगी और भगवान शिवशम्भू भोलेनाथ के साथ शिवलोक कैलाश पर्वत पर निवास करेंगी| जब माँ आदिशक्ति ने तीनों भगवानों के कार्यो की व्याख्या पूरी की तब आदिदेव भगवान ने माँ आदिशक्ति से पूछा की उनके विष्णु स्वरुप क्या अकेला ही रहेगा तब माँ आदिशक्ति ने भगवान आदिदेव से कहा कि इसकेलिए भगवन आदिदेव को थोड़ी प्रतीक्षा करना होगी जब ब्रम्हदेव इस सृष्टि की रचना करेंगे तब सुर और असुर का सृजन्य होगा जिसमे सुर देवता कहलाएंगे और असुर राक्षस जिसमे से देवताओं का वास स्वर्गलोक होगा और असुरों का वास पाताललोक में होगा और दोनों अपने अपने लोक पर राज करेंगे लेकिन दोनों में कभी भी मित्रता नहीं होगी दोनों एक दूसरे का अधिकार छीनने में लगे रहेंगे और असुर देवताओं के मुकाबले अधिक बलशालि होंगे और दोनों के बार बार युद्ध करने के कारण इस सृष्टि के कल्याण में रुकावटें आती रहेंगी तब देवता और असुर माँ आदिशक्ति की प्रेरणा से एकसन्धि हो कर समुद्र का मंथन करेंगे और उस समय माँ आदिशक्ति सागरकन्या लक्ष्मी के रूप में अवतरित होंगी और भगवान आदिदेव के श्री हरी विष्णु स्वरुप की सेवा करेंगी | और यही से माँ लक्ष्मी की जनम कथा प्रारंभ होती है |
इस तरह से जगत जननी माँ आदिशक्ति महामाया माँ का आदेश प्राप्त कर भगवान आदिदेव के तीनो दिव्यअंश अपने अपने लोक गमन कर अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करने का कार्य प्रारम्भ कर दिए, इस प्रकार से सर्वप्रथम इस सृष्टि का निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ और भगवान ब्रम्हा ने ऋषिमुनि से लेकर नर नारी देवताओं (सुर) और असुरों का सृजन किया और देवताओं को स्वर्गलोक प्रदान किया तथा असुरों को पाताललोक और देवताओं के गुरु वृहस्पति तथा असुरों के गुरु शुक्राचार्य पदासीन हुए | देवताओं को अति मनमोहक अनंत आकर्षित ना ना प्रकार के सर्वसुविधायुक्त वैभव विलासिता से परिपूर्ण स्वर्ग का अधिपत्य प्राप्त हुआ और उस स्वर्ग के सिहांसन पर सर्व प्रथम इन्द्रपद सुरेश को प्राप्त हुआ (यह ऐसी मान्यता कही जाती है कि देवताओं के प्रथम राजा का इन्द्रपद सुरेश को प्राप्त हुआ था) और वे देवताओं के राजा बनाये गए और उन्हें स्वर्गाधिपति,बिजली के देवता, बारिश के देवता इत्यादि की शक्तियाँ भी प्रदान की गयी | देवताओं को गौर वर्ण कांतिमय काया ऐश्वर्य वैभव विलास सुन्दर वस्त्राभूषण की प्राप्ति हुई इसके विपरीत असुरों के राजा हिरण्याक्ष को यह पद प्राप्त हुआ | और इस प्रकार से स्वर्ग और पाताललोक का सृजन हुआ | और जैसा की पूर्व में विदित है की देवताओं और असुरों में कभी भी मित्रता नहीं बन पाई और दोनों एक दूसरे के विरुद्ध युद्ध लड़ते रहे और इसी युद्ध कर परिणाम यह निकला कि असुर देवता पर भरी पड़ गये और युद्ध में असुरों के राजा बलि ने देवताओं को परास्त कर दिया , जैसा की पुराणों में बताया गया है कि दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने भगवन शिव की तपस्या कर के मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त की थी जिससे कि वे मृत असुरो को पुनर्जीवित कर सकते थे परन्तु अमर नहीं | असुरों से युद्ध हारने के पश्चात देव गुरु वृहस्पति देवताओं के राजा इंद्रा के समक्ष गए और उनसे समुद्र में निहित अकूत सम्पदा का वर्णन किया और साथ में यह भी बताया की समुद्र में अमृत है जिसे पी कर सभी देवता अमरत्व को प्राप्त कर सकते है और इसके लिए समुद्र का मंथन करना होगा और यह कार्य देवता अकेले नहीं कर सकते इसमें असुरों का भी सहयोग लेना होगा, देव गुरु वृहस्पति के समझने पर देवताओं के राजा इंद्रा देव गुरु वृहस्पति के साथ असुरों राजा बलि से मिलने और देवासुर संधि का प्रस्ताव लेकर पाताललोक पहुंचे, देवताओं के राजा इंद्रा के समक्ष गए और उनसे समुद्र में निहित अकूत सम्पदा का वर्णन किया और साथ में यह भी बताया की समुद्र में अमृत है जिसे पी कर सभी देवता अमरत्व को प्राप्त कर सकते है और इसके लिए समुद्र का मंथन करना होगा और यह कार्य देवता अकेले नहीं कर सकते इसमें असुरों का भी सहयोग लेना होगा, देव गुरु वृहस्पति के समझने पर देवताओं के राजा इंद्रा देव गुरु वृहस्पति के साथ असुरों राजा बलि से मिलने और देवासुर संधि का प्रस्ताव लेकर पाताललोक पहुंचे परन्तु असुरों के राजा बलि ने देवताओं से संधि करने से मना कर दिया तब देव गुरु वृहस्पति ने राजा बलि से असुरों के गुरु शुक्राचार्य के समक्ष परामर्श का मार्ग सुझाया और तीनों मिलकर असुर गुरु शुक्राचार्य के समक्ष गये देव गुरु वृहस्पति ने समुद्र मंथन का प्रस्ताव रखा जिसे असुर गुरु शुक्राचार्य ने स्वीकार कर लिया और राजा बलि को भी आदेशित किया और गुरु के कहने पर राजा बलि ने भी हामी भर दी लेकिन राजा बलि कर कहना था कि समुद्र मंथन में जो भी सम्पदा इत्यादि पहले निकलेगी उस पर असुरों का अधिकार होगा और जितनी सम्पदा निकलेगी उसका बराबर बटवारां होगा , लेकिन समुद्र मंथन का कार्य इतना आसान नहीं था इसके लिए बहुत बड़ी रस्सी और मथनी चाहिये थी इस पर गुरु शुक्राचार्य ने कहा की उनकी इस समस्या का समाधान के लिये भगवान शिव के पास चलना चाहिये और सभी लोग भगवान शिव के पास पहुंच कर अपने आने का तात्त्पर्य प्रकट किया और बताया कि दोनों मिलकर जगत कल्याण के लिए समुद्र मंथन करना चाहते हैं परन्तु उनके पास इतनी बड़ी मथनी और रस्सी नहीं जिससे यह कार्य हो सके तब भगवन शिव ने मथनी के लिए मंदार पर्वत का उल्लेख किया और रस्सी के लिए पाताललोक के वासुकि नाग का वर्णन किया और इस प्रकार भगवन शिव का आशीर्वाद प्राप्त कर दोनों मंदार पर्वत और वासुकि नाग को समुद्र मंथन के लिए मानाने चले गए और दोनों की स्वीकृति के पश्चात देवता और असुरों ने समुद्र मंथन कर कार्य प्रारम्भ किया| और जैसे ही समुद्र मंथन प्रारम्भ हुआ कुछ क्षणों पश्चात मंदार पर्वत अपने भर से समुद्र के नीचे जाने लगा तब जगत जननी माँ महामाया के कहने पर मंदार पर्वत को आधार देने लिये भगवान श्री हरि विष्णु कच्छप अवतार धारण किया इस प्रकार समुद्र का मंथन प्रारम्भ हुआ और समुद्र से कुल १४ रत्नों का प्राकट्य हुआ जो कि इस प्रकार है |
१. विष (हलाहल) जिसका ताप इतना अत्यधिक था जो कि देव असुर और सृष्टि को जला सकता था और देवराज इंद्रा की प्रार्थना पर भगवान शिव ने इस विष का पान किया जिसके कारण उनका कंठ नीला पड़ गया जिसके कारन भगवान शिव नीलकंठ के नाम से जाने जाते हैं |
२. उच्चैश्रवा घोड़ा (अश्वों का राजा)
३. ऐरावत हाथी (जो कि हाथियों में सर्वश्रेष्ठ है)
४. कौस्तुभ मणि (मणियों में सर्वश्रेष्ठ)
५. कामधेनु गाय (गायों में सर्वश्रेष्ठ जिसमे ३३ कोटि के देवी देवताओं का निवास है)
६. कल्पवृक्ष
७. अप्सरा रंभा
८. क्षीर सागर कन्या सर्वांग सुंदरी देवी महालक्ष्मी माँ (जनमन हारि मंगलमूर्ति कामनापूर्ति सिंधु दुलारी ऐश्वर्य धारिणी)
९. वारुणी (मदिरा) जिसका उपभोग कर असुर सदैव मदिरामय रहते हैं
१०. चन्द्रमा (जिसे भगवान शिव ने अपने मस्तक पर धारण किया)
११. पारिजात वृक्ष
१२. पांच्यजन्य शंख
१३. भगवान धन्वंतरि
१४. अमृत कलश (जिसका देवताओं ने अमृतपान कर अमरत्व को प्राप्त किया और छल से राहु ने भी अमृतपान किया जिससे भगवान विष्णु क्रोधित हो कर राहु सर धड़ से अलग कर उसे राहु और केतु दो हिस्सों में बाट दिया क्यों की राहु का छल सूर्य और चन्द्रमा दोनों ने देखा था इसलिये राहु अपने प्रतिशोध में सूर्य और चन्द्रमा दोनों पर अपनी छाया लगा कर ग्रहण करता है और इसलिये राहु द्वारा सूर्य और चन्द्रमा पर लगाये गए छाया को ही ग्रहण कहते हैं)
इस प्रकार सर्वांग सुंदरी ऐश्वर्य धारिणी जन्मान हरि मंगलमूर्ति कामनापूर्ति सिंधु दुलारी महालक्ष्मी माता का जनम हुआ और माता लक्ष्मी ने क्षीर सागर से अवतरित होने के पश्चात भगवान श्री हरि विष्णु को पति चुनकर सैदव के लिए क्षीर सागर में उनके साथ निवासरत हो गयी इस प्रकार माता महालक्ष्मी की जनम कथा समाप्त होती है आशा करता हु की आपको यह कथा पसंद आयी होगी |
मैं यह कामना करता हूँ कि माँ लक्ष्मी की जनम कथा आप सभी को पसंद आयी होगी और सर्वांग सुंदरी ऐश्वर्य धारिणी जन्मान हरि मंगलमूर्ति कामनापूर्ति सिंधु दुलारी महालक्ष्मी माता की महान कृपा आप सभी पर सैदव बनी रहे आप सभी के पास अनंत सुख वैभव विलास और सम्पत्ति हो माँ आप सभी का कल्याण करे और जितना संभव हो सके माँ लक्ष्मी की जनम कथा और भी लोगो के साथ साझा करें |
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very nice story
amazing story
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Jai Mahalaxmi Maa. Bahut sundar katha hai.
Bahut achi story hai aur bahut details me bate batayi gayi hai.
Jai Mahalaxmi Maa
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Very nice story, pehli baar itne deep me kisi ne Maa Lakshmi ki Janm katha ko bataya hai.
Jai MahaLakshmi Maa.